शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

एक सवाल है छत्तीसगढ़ के ब्लोगर्स से ?

मुझे नहीं पता शायद ये ब्लॉग सही जगह है या नहीं सवाल पूछने का पर छत्तीसगढ़ के प्रमुख ब्लोगर इस ब्लॉग से जुड़े है वो भी विभिन्न क्षेत्रों से इस लिए मेरी पहुँच में यही सर्वश्रेष्ठ और सुलभ स्थान है अपनी जिज्ञासा शांत करने का ।

अब मेरा सवाल ये है कि क्या रोजगार और नियोजन जो कि शायद एक शासकीय पत्रिका है उसे स्कैन करके ब्लॉग पर दिया जा सकता है ?
इस पर कोई कानूनी विवाद या अन्य समस्या तो नहीं होगी ?


इंटरनेट पर अभी तक ये उपलब्ध नहीं हो पाया है और इसको ढूँढने में काफी परेशानी होती है लोगों को विशेषकर इसके पिछले संस्करण ।

रविवार, 11 जुलाई 2010

क्या सचमुच यही कालाधन है !!!

काला धन क्या है ! काला धन से सीधा-सीधा तात्पर्य ऎसे धन से है जो व्यवहारिक रूप से सरकार व आयकर विभाग की नजर से छिपा हुआ है,यह भी धन तो है पर लेखा-जोखा में नहीं है यह बडे-बडे व्यापारियों, राजनेताओं, अधिकारियों, माफ़ियाओं व हवाला कारोबारियों की मुट्ठी में अघोषित रूप से बंद पडा है, इसे न सिर्फ़ व्यवहार में सार्वजनिक रूप से लिया जा सकता है और न ही इसका सार्वजनिक रूप से उपभोग किया जाना संभव है, पर इतना तय है कि इस कालेधन से काले कारनामों को निर्भिकतापूर्वक संपादित किया जा सकता है और लुक-छिप कर इसका भरपूर उपभोग संभव है।

कालेधन का कोई पैमाना नही है यह छोटी मात्रा अथवा बडे पैमाने पर हो सकता है, दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जिन लोगों के पास ये धन है संभवत: उन्हें खुद भी इसकी मात्रा का ठीक-ठीक अनुमान न हो, कहने का तात्पर्य ये है कि सामान्यतौर पर इंसान कालेधन का ठीक से लेखा-जोखा नहीं रख पाता है, जाहिरा तौर पर वह कालाधन जो विदेशी बैंकों मे जमा है अथवा जो विदेशी कारोबारों में लगा है उसके ही आंकडे सही-सही मिल सकते हैं, पर जिन लोगों के पास ये घर, जमीन, बैंक लाकर्स व तिजोरियों में बंद पडा है उसका अनुमान लगा पाना बेहद कठिन है।

काला धन कहां से आता है!! ... काला धन कैसे बनता है!!! ... कालेधन की माया ही अपरमपार है, बात दर-असल ये है कि धन की उत्पत्ति वो भी काले रूप में ... क्या ये संभव है! ... जी हां, ये बिलकुल सम्भव है पर इसे शाब्दिक रूप में अभिव्यक्त करना बेहद कठिन है, वो इसलिये कि जिसकी उत्पत्ति के सूत्र हमें जाहिरा तौर पर बेहद सरल दिखाई देते हैं वास्तव में उतने सरल नहीं हैं ...

... हम बोलचाल की भाषा में रिश्वत की रकम, टैक्स चोरी की रकम इत्यादि को ही कालेधन के रूप में देखते हैं और उसे ही कालाधन मान लेते हैं ... मेरा मानना है कि ये कालेधन के सुक्ष्म हिस्से हैं, वो इसलिये कि रिश्वत के रूप में दी जाने वाली रकम तथा टैक्स चोरी के लिये व्यापारियों व कारोबारियों के हाथ में आने वाली रकम ... आखिर आती कहां से है ...

... अगर आने वाली रकम "व्हाईट मनी" है तो क्या ये संभव है कि देने वाला उसका लेखा-जोखा नहीं रखेगा और लेने वाले को काला-पीला करने का सुनहरा अवसर दे देगा ... नहीं ... बिलकुल नहीं ... बात दर-असल ये है कि ये रकम भी कालेधन का ही हिस्सा होती है ... इसलिये ही तो देने वाला देकर और लेने वाला लेकर ... पलटकर एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देखते ...

... तो फ़िर कालेधन कि मूल उत्पत्ति कहां से है ... कालेधन की उत्पत्ति की जड हमारे भ्रष्ट सिस्टम में है ... होता ये है कि जब किसी सरकारी कार्य के संपादन के लिये १००० करोड रुपये स्वीकृत होते हैं और काम होता है मात्र १०० करोड रुपयों का ... बचने वाले ९०० करोड रुपये स्वमेव कालेधन का रूप ले लेते हैं ... क्यों, क्योंकि इन बचे हुये ९०० करोड रुपयों का कोई लेखा-जोखा नहीं रहता, पर ये रकम बंटकर विभिन्न लोगों के हाथों/जेबों में बिखर जाती है ... और फ़िर शुरु होता है इसी बिखरी रकम से लेन-देन, खरीदी-बिक्री, रिश्वत व टैक्स चोरी, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे जैसे कारनामें ... क्या सचमुच यही कालाधन है !!!!!

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कौन कहता है नक्सलवाद एक विचारधारा है !

कौन कहता है नक्सलवाद समस्या नहीं एक विचारधारा है, वो कौनसा बुद्धिजीवी वर्ग है या वे कौन से मानव अधिकार समर्थक हैं जो यह कहते हैं कि नक्सलवाद विचारधारा है .... क्या वे इसे प्रमाणित कर सकेंगे ? किसी भी लोकतंत्र में "विचारधारा या आंदोलन" हम उसे कह सकते हैं जो सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष रखे .... कि बंदूकें हाथ में लेकर जंगल में छिप-छिप कर मारकाट, विस्फ़ोट कर जन-धन को क्षतिकारित करे

यदि अपने देश में लोकतंत्र होकर निरंकुश शासन अथवा तानाशाही प्रथा का बोलबाला होता तो यह कहा जा सकता था कि हाथ में बंदूकें जायज हैं ..... पर लोकतंत्र में बंदूकें आपराधिक मांसिकता दर्शित करती हैं, अपराध का बोध कराती हैं ... बंदूकें हाथ में लेकर, सार्वजनिक रूप से ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बता कर फ़ांसी पर लटका कर या कत्लेआम कर, भय दहशत का माहौल पैदा कर भोले-भाले आदिवासी ग्रामीणों को अपना समर्थक बना लेना ... कौन कहता है यह प्रसंशनीय कार्य है ? ... कनपटी पर बंदूक रख कर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कलेक्टर, एसपी किसी से भी कुछ भी कार्य संपादित कराया जाना संभव है फ़िर ये तो आदिवासी ग्रामीण हैं

अगर कुछ तथाकथित लोग इसे विचारधारा ही मानते हैं तो वे ये बतायें कि वर्तमान में नक्सलवाद के क्या सिद्धांत, रूपरेखा, उद्देश्य हैं जिस पर नक्सलवाद काम कर रहा है .... दो-चार ऎसे कार्य भी परिलक्षित नहीं होते जो जनहित में किये गये हों, पर हिंसक वारदातें उनकी विचारधारा बयां कर रही हैं .... आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्याएं हर युग - हर काल में होती रही हैं और शायद आगे भी होती रहें .... पर समाज सुधार व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के लिये बनाये गये किसी भी ढांचे ने ऎसा नहीं किया होगा जो आज नक्सलवाद के नाम पर हो रहा है .... इस रास्ते पर चल कर वह कहां पहुंचना चाहते हैं .... क्या यह रास्ता एक अंधेरी गुफ़ा से निकल कर दूसरी अंधेरी गुफ़ा में जाकर समाप्त नहीं होता !

नक्सलवादी ढांचे के सदस्यों, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे बुद्धिजीवियों से यह प्रश्न है कि वे बताएं, नक्सलवाद ने क्या-क्या रचनात्मक कार्य किये हैं और क्या-क्या कर रहे हैं ..... शायद वे जवाब में निरुत्तर हो जायें ... क्योंकि यदि कोई रचनात्मक कार्य हो रहे होते तो वे कार्य दिखाई देते.... दिखाई देते तो ये प्रश्न ही नहीं उठता .... पर नक्सलवाद के कारनामें ... कत्लेआम ... लूटपाट ... मारकाट ... बारूदी सुरंगें ... विस्फ़ोट ... आगजनी ... जगजाहिर हैं ... अगर फ़िर भी कोई कहता है कि नक्सलवाद विचारधारा है तो बेहद निंदनीय है।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

लोकतंत्र रूपी मायानगरी

चलो अच्छा रहा
आज भारत बंद था
कुछ लोग
घर से ही नहीं निकले
निकलते तो दो-चार
बेवजह सडक दुर्घटना
में मारे जाते

कुछ लूट के शिकार
होने से बच गए
तो कुछ किडनेप
होते होते रह गए

इससे भी बडी खबर
तो ये है कि
कुछ महिलाएं
छेडछाड, छींटाकशी
से बची रहीं
और कुछेक तो
बलात्कार की शिकार होने से
कम-से-कम एक दिन के लिये
तो बच ही गईं

शुक्र है बुद्धिजीवियों का
जो एक दिन के लिये
तो भलाई का कदम उठाया

बुराई कहीं नजर आई
तो बस सडकों पर
देश के कुछेक कर्णधार
बल प्रदर्शन कर
तोड-फ़ोड, मारा-मारी करते
दुकानें बंद कराते
व गरीवों को सताते दिखे
तो कुछ यह सब होते देखता दिखे

धन्य हैं लोकतंत्र के कर्णधार
जो भारत बंद ... बंद ... बंद
के समर्थन व विरोध में
हो हल्ला कर रहे हैं

रही बात मंहगाई की
वो तो खूब
फ़ल-फ़ूल रही है
दिन-दूनी, रात-चौगनी
सीना तान कर
एक एक कदम
आगे बढ रही है

भारत बंद तो होता आ रहा है
आगे भी होता रहेगा
आज विपक्षी रोटी सेंक रहे हैं
तो कल पक्षियों को भी
रोटी सेंकने का भरपूर मौका मिलेगा
ये लोकतंत्र रूपी भट्टा है यारो
जिस में अंगार हरदम
गरमा गरम मिलेगा
धन्य है ये लोकतंत्र रूपी मायानगरी
धन्य है... धन्य है ... धन्य है।

रविवार, 4 जुलाई 2010

ब्लॉगर संजीत त्रिपाठी को चौंथा सृजनगाथा सम्मान



सृजनगाथा डॉट कॉम का चौंथा वार्षिक आयोजन


रायपुर । राज्य की पहली वेब पत्रिका तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित, साहित्य, संस्कृति, विचार और भाषा की मासिक पोर्टल सृजनगाथा डॉट कॉम (www.srijangatha.com) के चार वर्ष पूर्ण होने पर चौंथे सृजनगाथा व्याख्यानमाला का आयोजन 6 जुलाई, 2010 दिन मंगलवार को स्थानीय प्रेस क्लब, रायपुर में दोपहर 3 बजे किया गया है । जिसमें हिन्दी के चर्चित आलोचक, समीक्षक और संपादक,उन्नयन, इलाहाबाद श्रीप्रकाश मिश्र, “कविता क्या, कविता क्यों ?” विषय पर व्याख्यान देंगे । विशिष्ट अतिथि होंगे सर्वश्री रमेश नैयर, श्री गोविंद लाल वोरा, श्री अनिल विभाकर, श्री सुशील त्रिवेदी, श्री रवि भोई, श्री अनिल पुसदकर ।
पोर्टल के संपादक जयप्रकाश मानस ने बताया है कि इस अवसर पर चौंथे सृजनगाथा डॉट कॉम सम्मान से श्री सनत चतुर्वेदी (पत्रकारिता), श्री नरेन्द्र बंगाले (फोटो पत्रकारिता), श्री संतोष जैन (इलेक्ट्रानिक मीडिया), श्री संदीप अखिल (रेडियो पत्रकारिता), श्री अशोक शर्मा (वेब-विशेषज्ञ), श्री संजीत त्रिपाठी (हिन्दी ब्लॉगिंग), श्री त्र्यम्बक शर्मा (कार्टून) और श्री कैलाश वनवासी, दुर्ग (कथा लेखन) श्री देवांशु पाल, बिलासपुर (लघुपत्रिका ) को सम्मानित किया जायेगा।
रायपुर से राम पटवा की रपट

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