मंगलवार, 23 नवंबर 2010

... उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!!

मैं भ्रष्ट हूँ, भ्रष्टाचारी हूँ
जाओ, चले जाओ
तुम मेरा, क्या उखाड़ लोगे !
चले आये, डराने, डरता हूँ क्या !
गए, डराने, उनका क्या कर लिया
जो पहले सबकी मार मार कर
धनिया बो-और-काट कर चले गए !

चले आये मुंह उठाकर
नई-नवेली दुल्हन समझकर
आओ देखो, देखकर ही निकल लो
अगर ज्यादा तीन-पांच-तेरह की
तो मैं पांच-तीन-अठारह कर दूंगा !
फिर घर पे खटिया पर बैठ
करते रहना हिसाब-किताब !

समझे या नहीं समझे
चलो फूटो, फूटो, निकल लो
जो पटा सकते हो, पटा लेना
जो बन सके उखाड़ लेना !
मेरे साब, उनसे बड़े साब
और उनके भी साब
सब के सब खूब धनिया बो रहे हैं
क्या कभी उनका कुछ उखाड़ पाए !

चले आये मुंह उठाकर
मुझे सीधा-सादा समझकर
फिर भी करलो कोशिश
कुछ पटाने की, उखाड़ने की !
शायद कुछ मिल जाए
नहीं तो, चुप-चाप चले आओ
दंडवत हो, नतमस्तक हो जाओ
कुछ कुछ देता रहूंगा
तुम्हारा भी खर्च उठाता रहूंगा !

क्यों, क्या सोचते हो
है विचार दंडवत होने का
गुरु-चेला बनने का
कभी तुम गुरु, कभी हम गुरु
कभी हम चेला, कभी तुम चेला
या फिर, हेकड़ी में ही रहोगे ?
ठीक है, तो जाओ, चले जाओ
उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!!
.....................................

तो क्या तुम अब, हमारी जान ही ले लोगे !!!

1 टिप्पणी:

Satish Saxena ने कहा…

बहुत बेबाकी से लिखा है ! भविष्य के लिए शुभकामनायें !

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